Sawa Ser Gehu Short Story in Hindi | मुंशी प्रेमचंद की कहानी
1. Sawa ser gehu summary in Hindi
Sawa Ser Gehu Short Story in Hindi, देश की आजादी से पहले मुंशी प्रेमचंद के द्वारा लिखी गई कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ काफी लोकप्रिय हुआ। इस कहानी की विषयवस्तु न सिर्फ यह आभास करता है कि गरीबी में जीने वाले किसान न जाने कितने कठोर परिस्थितियों का सामना करने को विवश है, बल्कि इस कहानी ने ये सीख दी कि शोषक समाज लगभग स्थायी रूप से हमारे इर्द-गिर्द हमेशा मौजूद रहा है। इस कहानी का मुख्य पात्र शंकर जो की एक गरीब किसान होता है लेकिन अपनी जान की कीमत पर भी सवा सेर आटे की उधारी चुका नहीं पाता और उसके बेटे को भी मज़बूरी में बंधुआ मजदूर बनना पड़ता है। प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने इस कथा में एक-एक कलाकाराें को ऐसे जीवंत किया कि इसका संदेश दर्शक दीर्घा पर अपना छाप छोड़ जाता है।
सवा सेर गेहूँ – मुंशी प्रेमचंद की कहानी
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एक दिन संध्या के समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मुखमण्डल थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, सम्पूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिध्दि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता। प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषों के लिए दुष्पाच्य होता है। बेचारे को बड़ी चिन्ता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊँ। आखिर में निश्चय किया कि किसी से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ, पर गाँव-भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता। सौभाग्य से गाँव के विप्र महाराज के यहाँ से थोड़ा-सा मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्त्री से कहा, कि पीस दे। महात्मा ने भोजन किया, लम्बी तानकर सोये। प्रात:काल आशीर्वाद देकर अपनी राह चले गए |
पाँच बीघे के आधे रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती ! अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मजदूरी पर आ पड़ा। सात वर्ष बीत गये, एक दिन शंकर मजदूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा, ‘ शंकर, कल आकर के अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या ?
शंकर को तो जैसे साप सूंघ गया उसने चकित होकर कहा, मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गये ? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटाँक-भर न अनाज है, और न एक पैसा उधार।
विप्र – इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने तक को भी नहीं जुड़ता।
यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का ज़िक्र किया, जो उसने आज के सात वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ईश्वर मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया ?
जब भी पोथी-पत्र देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ ‘दक्षिणा’ ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप साध बैठे रहे ? बोला, महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा ?
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विप्र – लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो
तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।
शंकर – क्यों एक ग़रीब को सताते हो, मेरे खाने तक का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा ?
विप्र – ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे।
विप्र बोला – वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ?
शंकर – मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी तो न दूँगा !
विप्र –‘मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो।
शंकर – मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे दस्तावेज लिखाओ, किस हिसाब से दाम रक्खोगे ?
विप्र –‘बाज़ार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा।
शंकर— ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाज़ार-भाव काटूँगा, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूँ।
पंडित जी ने विस्मित होकर पूछा, क़िसी से उधार लिये क्या ?
शंकर – नहीं महाराज, आपके आशीर्वाद से इस बार मजदूरी अच्छी मिली।
विप्र – लेकिन यह तो मात्र 60 रु. ही हैं !
शंकर – हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।
विप्र – उरिन तो जभी होगे जबकि मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे 15रु. और लाओ।
शंकर – महाराज, इतनी दया करो, अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी तो दे ही दूँगा।
विप्र –‘मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से 3 रु. सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ।
शंकर –‘अच्छा जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से 15रु. और लाने की फ़िक्र करता हूँ।
शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह ज़रूरतें जिनको उसने साल-भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होने वाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होने वाली पिशाचनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिये बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्तु। जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिन्ता न थी मानो उसके ऊपर किसी का एक पैसा भी नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता।
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विप्र –‘मैं इसी जन्म में लूँगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।
शंकर – एक बैल है, वह ले लीजिए और मेरे पास रखा ही क्या है।
विप्र – मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।
शंकर –‘और क्या है महाराज? ‘
विप्र –‘क़ुछ है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजदूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजदूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल को दे देना।
सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूँ। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे ?
शंकर – महाराज, सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या ?
विप्र –‘तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कम्बल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और क्या चाहिए।
यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें रुपये भरने के लिए रखता हूँ।
शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा, ‘ महाराज यह तो जन्म-भर की ग़ुलामी हुई।
विप्र –‘ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराये बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।
लेकिन शंकर बेचारा चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वह सवा सेर गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति यावज्जीवन उसके सिर से न उतरे।
शंकर ने विप्रजी के यहाँ 20 वर्ष तक ग़ुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से चला गया। लेकिन 120 अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस ग़रीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा, होगा भी या नहीं, अब तो ये ईश्वर ही जाने।
‘मुंशी प्रेमचंद’
विकिपीडिया के संदर्भ से
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